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चक्षुओं के अश्रुओं को / आशुतोष द्विवेदी

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चक्षुओं के अश्रुओं को हृदय का उल्लास कह दूँ !
चाहते हो मित्र, मैं पतझार को मधुमास कह दूँ !


मित्रता भी स्वार्थ की आपूर्ति का है एक साधन
बिक रहे संबंध स्नेहिल, है खड़ा बाज़ार में मन
आज आदर, मान की वह भावना भी मर गयी है
और ममता आत्मजों की नीतियों से दर गयी है
देखते हैं नेत्र ललचाते हुए सौन्दर्य को भी
वासनाओं की क्षुधा को प्रेम मधु की प्यास कह दूँ !


दानवों का लक्ष्य तो है सृष्टि का विध्वंस करना
किन्तु प्रभु का ध्येय है – इस विश्व का विद्वेष हरना
कैकेयी है, मंथरा है और दो वरदान भी हैं
राम भी हैं, लक्ष्मण भी, भक्त भरत समान भी हैं
धर्म की संस्थापना के मार्ग पर पहले चरण को,
हो दुखी हर बार मैं श्री राम का वनवास कह दूँ !


शृंखला है वेदनाओं की कमी होती नहीं कम
मौसमों ने रंग बदला, पर बदल पाये न थे हम
सुन रहे हो चीख नभ की, भूमि का अविराम रूदन
मृत्यु की जैसे प्रतीक्षा कर रहा हो आज जीवन
छोड़ गंगाजल नहाते लोग शोणित की नदी में,
इन कटीले अनुभवों को शांति का आभास कह दूँ !



कर्म है किसने किया अधिकार किसको मिल गए है !
कौन है राजा, सजे दरबार किसको मिल गए हैं !
रौशनी देता रहा निशिभर हमें जो दीप जल कर,
प्रात होने पर उसे हम याद कर पाये न क्षण भर
गीदड़ों को मैं कहूँ राणा प्रताप, शिवा, हकीकत,
और कौवों को बिहारी, सूर, तुलसीदास कह दूँ !


आज अपना गाँव भी हमको पुराना लग रहा है
देश का इतिहास बस गुज़रा ज़माना लग रहा है
पूर्वजों की चीर पुरातन संस्कृति का क्या पता है
दूसरों की नकल करना ही हमारी सभ्यता है
खो चुके हैं देश का गौरव, स्वयं को भूल बैठे,
आज इस दयनीय स्थिति को मैं नवीन विकास कह दूँ !