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चट्टानें / भगवत रावत
Kavita Kosh से
चारों ओर फैली हुईं
स्थिर और कठोर चट्टानों की दुनिया के बीच
एक आदमी
झाड़ियों के सूखे डंठल बटोर कर
आग जलाता है।
चट्टानों के चेहरे तमतमा जाते हैं
आदमी उन सबसे बेख़बर
टटोलता हुआ अपने आपको
उठता है और उनमें किसी एक पर बैठकर
अपनी दुनिया के लिए
आटा गूँधता है।
आग तेज़ होती है
चट्टानें पहली बार अपने सामने
कुछ बनता हुआ देखती हैं ।
अंत में आदमी
उठकर चल देता है अचानक
उसी तरह बेख़बर
चट्टानें पहली बार अपने बीच से
कुछ गुजरता हुआ
महसूस करती हैं।