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चढ़ाई / प्रफुल्ल कुमार परवेज़
Kavita Kosh से
देर से आप
जब देख रहे होंगे शिखर
तलहती से
पहाड़ देख रहा होगा थकान शुरुआत में
और झुकता चला आयेगा
आपकी पीठ ठोकते हुए आपसे कहेगा
नहीं भाई नहीं ऐसे नहीं
सहज-सहज
जब आप चढ- रहे होंगे
शाखाएँ आपकी हथेलियों तक
उतर रही होंगी
आपकी मदद कर रही होंगी
आपका पसीना पोंछ रही होगी हवा
कह रही होगी
रहने दो रहने दो जेब में
अपना रुमाल
पत्ते अपने संगीत में विलम्बित
बज रहे होंगे
आपके तरतम्य में
चट्टानें आपको लौटा रही होंगी
आपका संतुलन
ऐन वक़्त पर
आ रहे होंगे वृक्ष
अपनी छाँओं के साथ
आपसे कह रहे होंगे
आइए-आइए
हमें रहती है आपकी प्रतीक्षा
उसी छाँव में आपकी प्यास के लिए
फूट रहे होंगे झरने