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चढ़ी आज डोली बढ़े जा रही है / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
चढ़ी आज डोली बढ़े जा रही है।
जुदाई का ग़म पर दिये जा रही है॥
निगाहें उठाकर निहारे हैं आँगन
दुआएँ हजारों दिये जा रही है॥
रुलाई कहीं छूट जाए ना मुख से
सभी अपने आँसू पिये जा रही हैं॥
रही छूट अब सारी बचपन की सखियाँ
वही चंद यादें लिये जा रही है॥
हिना से रचे हाथ की मुट्ठियों में
ले तकदीर अपनी जिये जा रही है॥
न जाने हैं कैसी सजन गेह गलियाँ
मधुर कल्पनाएँ किये जा रही है॥
न जाने लिखी किस कलम से है किस्मत
लबों को ये अपने सिये जा रही है॥