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चढू ही रहत चित पै चित-चोर / स्वामी सनातनदेव

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राग चन्द्रनट, तीन ताल 15.7.1974

चढ़्यौहि रहत चित पै चित-चोर।
चित्त चुराय दुराय रहत नहिं, बहु विध करत निहोर॥
चित्त-वित्त लीन्हों अरु दीन्हों मोकों प्रीति-अँकोर<ref>आलिंगन</ref>।
चित्त न देत देहुँ वरु सरबसु, ढीठ बड़ो बरजोर॥1॥
जा खन चित्त लियो वाही खन घुस्यौ नयन सखि! मोर।
नयनन ही में नित्य बसत है मेरे मन को चोर॥2॥
मेरो चित्त भयो वाही को, पै वह है अब मोर।
वाको चित्त नचावै मोकों पकरि प्रेम की डोर॥3॥
मैं कठपुतली भई चोर की, सूत्रधार वह मोर।
चित्त विना मैं रहूँ सखी रौ! वामें नित्य विभोर॥4॥

शब्दार्थ
<references/>