चढे़ सूर्य को ढलते देखा / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
चढे़ सूर्य को ढलते देखा
लाशों को भी चलते देखा
इस परिवर्तनशील समय को
पल-पल रंग बदलते देखा
कितनों को इस भागदौड़ में
गिरते और सँभलते देखा
ज्वाला में देखी शीतलता
हिम को आग उगलते देखा
जो औरों को रहे जलाते
उन्हें चिता पर जलते देखा
आँधी में भी दीपशिखा को
जलते और मचलते देखा
मुट्ठी में था जिनके सब कुछ
हाथ उन्हीं को मलते देखा
काँटों में सुमनावलियों को
साथ ख़ुशी के पलते देखा
गोरे तन के काले मन को
निश्छलता को छलते देखा
पड़े धरा पर देखा
ऊपर जिन्हें उछलते देखा
हत्यारे पापी लोगों को
नित्य फूलत-फलते देखा
क्षुद्र नदी को भी पावस में
सीमा तोड़, उझलते देखा
सब कुछ देखा दुनिया में, पर
पत्थर को न पिघलते देखा
काँटा बनी कुसुम कलियों को
भावुक मन में खलते देखा
अमृत बाँटते रहे ‘मधुप’ जो
उनको ज़हर निगलते देखा