चतुर्थ अंक / भाग 4 / रामधारी सिंह "दिनकर"
उर्वशी
अरी देखती नहीं, लाल की नन्हीं-सी आंखॉ में
अब भी तो सुस्पष्ट स्वर्ग के सपने झलक रहे हैं?
टुकुर-टुकुर संतुष्ट भाव से कैसे ताक रहा है?
मानो, हो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी समर्थ देवॉ-सा!
सुकन्या
सखी! तुम्हारा लाल अभी से बहुत-बहुत नटखट है,
देख रही हूँ बड़े ध्यान से, जब से तुम आई हो,
तु पर से इस महाधूर्त की दृष्टि नहीं हटती है.
लो, छाती से लगा जुड़ाओ इसके तृषित हृदय को;
जो भी करूँ, दुष्ट मुझको अपनी माँ क्यो मानेगा?
उर्वशी
अरी! जुड़ाना क्या इसको? ला, दे, इस ह्दय-कुसुम को
लगा वक्ष से स्वयं प्राण तक शीतल हो जाती हूँ
(सुकन्या की गोद से बच्चे को लेकर हृदय से लगाती है)
आह! गर्भ में लिए इसे कल्पना-श्रृंग पर चढ़ कर
किस सुरम्य उत्तुंग स्वप्न को मैने नहीं छुआ था?
यही चहती थी समेट कर पी लूँ सूर्य-किरण को,
विधु की कोमल रश्मि, तारकॉ की पवित्र आभा को,
जिससे ये अपरूप, अमर ज्योतियाँ गर्भ में जाकर
समा जाएँ इसके शोणित में, हृदय और प्राणॉ में.
यही सोचती थी त्रिलोक में जो भी शुभ, सुन्दर है,
बरस जाए सब एक साथ मेरे अंचल में आकर;
मैं समेट सबको रच दूँ मुसकान एक पतली-सी,
और किसी भी भांति उसे जड़ दूँ इसके अधरॉ पर!
सब का चाहा भला कि इसके मानस की रचना में
समावेश हो जाए दया का, सभी भली बातॉ का.
विनय सुनाती रही अगोचर, निराकार, निर्गुण को,
भ्रूण-पिंड को परम देव छू दें अपनी महिमा से.
वह सब होगा सत्य; लाल मेरा यह कभी उगेगा
पिता-सदृश ही अपर सूर्य बनकर अखंड भूतल में
और भरेगा पुण्यवान यह माता का गुण लेकर
उर-अंतर अनुरक्त प्रजा का शीतल हरियाली से.
जब होगा यह भूप, प्रचुर धन-धान्यवती भू होगी,
रोग, शोक, परिताप,पाप वसुधा के घट जाएंगे;
सब होंगे सुखपूर्ण, जगत में सबकी आयु बढ़ेगी,
इसीलिए तो सखी! अभी से इसे आयु कहती हूँ.
(बच्चे को बार-बार चुमकारती है)
कितनी मृदुल ऊर्मि प्राणॉ में अकथ, अपार सुखॉ की!
दुग्ध-धवल यह दृष्टि मनोरम कितनी अमृत-सरस है!
और स्पर्श में यह तरंग-सी क्या है सोम-सुधा की,
अंख लगाते ही आंखॉ की पलकें झुक जाती हैं!
हाय सुकन्ये! कल से मैं जानें, किस भांति जियूँगी!
सुकन्या
क्यों कल क्या होगा?
उर्वशी
कल से मुझ पर पहाड़ टूटेगा.
यज्ञ पूर्ण होगा, विमुक्त होते ही आचारॉ से
कल, अवश्य ही, महाराज मेरा सन्धान करेंगे.
और न क्षण भर कभी दूर होने देंगे आंखों से.
हाय दयित जिसके निमित्त इतने अधीर व्याकुल हैं,
उनका वह वंशधर जन्म ले वन में छिपा पड़ा है.
और विवशता यह तो देखो, मैं अभागिनी नारी
दिखा नहीं सकती सुत का मुख अपने ही स्वामी को
न तो पुत्र के लिए स्नेह स्वामी का तज सकती हूँ.
भरत-शाप जितना भी कटु था, अब्तक वह वर ही था;
उसका दाहक रूप सुकन्ये! अब आरम्भ हुआ है.
सुकन्या
महा क्रूर-कर्मा कोविद; ये भरत बड़े दारुण हैं.
यह भी क्या वे नहीं जानते, संतति के आने पर
पति-पत्नी का प्रणय और भी दृढ़तर हो जाता है?
बाला रहती बँधी मृदुल धागॉ से शिरिष-सुमन के,
किंतु,अंक में तनय, पयस के आते ही अंचल में,
वही शिरिष के तार रेशमी कड़ियाँ बन जाते है.
और कौन है, जो तोड़े झटके से इस बन्धन को?
रेशम जितना ही कोमल उतना ही दृढ़ होता है.
कौन भामिनी है, जो अंगज पुत्र और प्रियतम में
किसी एक को लेकर सुख से आयु बिता सकती है
कौन पुरन्ध्री तज सकती है पति के लिए तनय को?
कौन सती सुत के निमित्त स्वामी को त्याग सकेगी?
यह संघर्ष कराल! उर्वशी! बड़ा कठिन निर्णय है.
पुत्र और पति नहीं,पुत्र या केवल पति पाओगी,
सो भी तब, जब छिपा सको निष्ठुर बन सदा तनय को,
और मिटा दो इसी छिपाने में भविष्य बेटे का.
सखी! दुष्ट मुनि ने कितना यह भीषण शाप दिया है!
इससे तो था श्रेष्ठ भस्म कर देते तुम्हे जलाकर.
चित्रलेखा
किंतु, जला दें तो सन्ध्या आने पर इन्द्र-सभा में
नाच-नाच कर कौन देवताऑ की तपन हरेगी
काम-लोल कटि के कम्पन, भौहॉ के संचालन से?
सरल मानवी क्या जानो तुम कुटिल रूप देवॉ का?
भस्म-समूहॉ के भीतर चिनगियाँ अभी जीती हैं
सिद्ध हुए, पर सतत-चारिणी तरी मीन-केतन की
अब भी मन्द-मन्द चलती है श्रमित रक्त-धारा में.
सहे मुक्त प्रहरण अनंग का, दर्प कहाँ वह तन में?
बिबुध पंचशर के बाणॉ को मानस पर लेते हैं.
वश में नहीं सुरॉ के प्रशमन सहज, स्वच्छ पावक का,
ये भोगते पवित्र भोग औरॉ में वह्नि जगाकर!
कहते हैं, अप्सरा बचे यौवनहर प्रसव-व्यथा से;
और अप्सराएँ इस सुख से बचती भी रहती हैं.
क्योकि कहीं बस गई भूमि पर वे माताएँ बनकर,
रसलोलुप् दृष्टियाँ सिद्ध, तेजोनिधान देवॉ की
लोटेंगी किनके कपोल, ग्रीवा, उर के तल्पॉ पर?
हम कुछ नहीं, रंजिकाएँ हैं मात्र अभुक्त मदन की.
हाय, सुकन्ये! नियति-शाप से ग्रसित अप्सराऑ की
कोई भी तो नहीं विषम वेदना समझ पाता है.