चन्देल-चन्द्रोदय / जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’
भूपति श्रीमान के द्वितीय पुत्र माधव जू,
परम प्रवीण हुए नृप बारीगढ़ के।
तत्तयन देववर्म-सुत बुधवर्म हुए,
जा सका रषान से न कोई आगे बढ़ के।
जैनवर्म वीर बलशाली औ' कल्लोलवर्म,
खीलवर्म-कीर्ति बसी काव्य-उर मढ़ के।
सत्यवर्म-भगवन्त-जगवन्तवर्म भूप,
वाक्यपति आगे बढ़े रण-सीढ़ी चढ़ के॥
वाक्यपति क्षितिप का क्रीडागिरि विन्ध्य बना,
समराटवी के जो मृगेन्द्र बलवान हैं।
चन्द्रवंश के धवल दिव्य नभ-मण्डल में,
कीर्ति-कौमुदी के जो महोज्ज्वल वितान हैं।
लेखनी-कृपाण दोनों जिनके समीप रहीं,
कला-शिल्प हेतु दिये मुक्तहस्त दान हैं।
गाती गीत वंश की परम्परा है आज तक,
पृथु औ' ककुत्स्थ सम नृपति महान हैं॥
ज्येष्ठ जयशक्ति की है वीरता प्रसिद्ध अति,
अमित प्रताप मानो कानन-अनल है।
पृथु से है नाम पड़ा जैसे पृथिवी का दिव्य,
जय से जेजाकभुक्ति वैसे ही अटल है।
लघु हैं विजयशक्ति नृपकुल चन्द्र सम,
राम सम जिनका प्रबल बाहुबल है।
मित्र-उपकार हेतु दक्षिण सीमान्त तक,
फैली कीर्ति वीरता की आज भी धवल है॥
नृप विजैशक्ति के सुपुत्र दिव्य राहिल हैं,
चन्द्रवंशी भूभृतों की अद्वितीय शान हैं।
अजैगढ़-मन्दिर है कीर्ति-गीत गाता नित्य,
आज भी राहिल के पाषाण विद्यमान हैं।
वास्तु-शिल्पशास्त्र हेतु कल्पद्रुम सिद्ध हुए,
मित्रपक्ष हेतु जो प्रसन्न वरदान हैं।
सुनते ही नाम नींद उड़ जाती रिपुओं की,
युद्ध-यज्ञ के हुए जो याज्ञिक महान हैं॥
राहिल के कुल की प्रतिष्ठा का विमल यश,
बढ़ा हर्षवर्म के मनोरम प्रताप से।
युद्ध रूपी उदधि को पार करने का सेतु,
रचते तुरत जो हैं निज सर-चाप से।
आश्रितार्थ कल्पवृक्ष, अमृत सखा के हेतु,
अरिदल-दाहक हैं धूमकेतु ताप-से।
ग्रीष्म-सूर्य-से प्रचण्ड कंचुका के प्राणनाथ,
नाप लिये धरा-सिन्धु वीरता की माप से॥
हर्ष-कंचुका के पुत्र यशोवर्म अद्वितीय,
युद्ध-सिन्धु तारण के हेतु पतवार हैं।
लिखते समर-गीत चन्द्रवंशी रक्त से हैं,
गौड़-क्रीडालय हेतु तीक्ष्ण खड्ग-धार हैं।
खस-बल-श्लथ हुआ कोशलों का कोश रिक्त,
कश्मीर-वीर हेतु प्रबल प्रहार हैं।
मिथिला शिथिल और मालवार्क अस्त हुए,
चेदि-कुरु-गुर्जरों को कठिन कुठार हैं॥
स्वर्ग-द्रुम में खिले अकुण्ठ पुष्प-पल्लव से,
जिसको सजाया था हिमाद्रि-अंगजाता ने।
गंगा की पुनीत वारि-धारा से अलंकृत जो,
जहाँ निज शैशव बिताया विश्वमाता ने।
जिसके समुच्च श्रृंग सूर्य-रथ रोकते थे,
जिसको पवित्र किया शिव-नेह-नाता ने।
जाह्नवी-कलिन्दजा का तट भी है जीत लिया,
नृप यशोवर्म चन्द्रवंश के विधाता ने॥
राजमहलों में महिपतियों की मण्डली में,
आश्रम में मुनिगण संस्तुति सुनाते हैं।
ग्राम की सभा के मध्य सज्जन प्रसन्नचित्त,
पामरों के साथ-साथ वणिकों को भाते हैं।
मार्ग के चौपालों और वनवासियों के गृह,
जन-जन करते प्रशंसा न अघाते हैं।
हर ओर हर ठाँव हर कोई हर क्षण,
भावपूर्ण यशोवर्म-यश-गीत गाते हैं॥
नृप यशोवर्म के महान धंगदेव हुए,
खजुराहो-कला के संरक्षक-सृजेता हैं।
युद्ध-पत्र पर लिखे रक्त से अमिट गीत,
स्वर्ण-श्रृंग वैभव के मंजुल प्रणेता हैं।
भारत को एकता का सूत्र देनेवाले भूप,
शान्तिपूर्ण शासन के महाबली नेता हैं।
गौरवी परम्परा के उच्च श्रृंग विद्यमान,
नृप धंगदेव जू महोज्ज्वल विजेता हैं॥
शिव की विभूति मन-मुकुर में धारे हुए,
हिन्दु-कुल-केतु फहराये धंगदेव हैं।
उम्र की शताब्दी को सहर्ष देखने के बाद,
प्रभु-चरणारविन्द ध्याये धंगदेव हैं।
जाह्नवी-कलिन्दजा हैं भेंटती जहाँ प्रसन्न,
वहीं ध्यान योगी-सा रमाये धंगदेव हैं।
नश्वर शरीर-त्याग संगम के पुण्य-जल,
मोक्ष-फल अविलम्ब पाये धंगदेव हैं॥
नृप धंगदेव के मुकुटमणि गण्डदेव,
पितृ के समान हुए भूप बलवान हैं।
गण्ड के समक्ष गजनीश की न चली एक,
इतिहास में प्रबल इसके प्रमाण हैं।
गण्ड-सुत विद्याधर, विद्याधर के समान,
युद्धकलाचार्य हैं, प्रवीण शक्तिमान हैं।
शिष्य सम जिनकी उपासना में दत्तचित्त,
भोज और कल्चुरीन्द्र शासक महान हैं॥
विद्याधरदेव के सुपुत्र विजैपाल हुए,
तस्य देववर्म हुए शासक अनूप हैं।
देववर्म के अनुज कीर्तिवर्म कीर्तिवान,
जिनको सल्लक्षण जू मिले पुत्र रूप हैं।
उत्तराधिकारी दिव्य लक्षण के बलवान
नृप जयवर्म हुए तेजवान धूप हैं।
पृथिवी-मदन फिर पृथिवीश यशोवर्म,
परमर्दिदेव हुए चन्द्रवंशी भूप हैं॥
भूप परमर्दि का धवल यश अनुपम,
देख भानु-किरणों की शोभा हुई म्लान है।
केवड़ा-गुलाब-पारजात गन्धहीन हुए,
सँकुचाई केसर का हुआ अवसान है।
नृप-कीर्ति-कामिनी की उन्नति न अँट पायी,
हुआ लघु स्वयमेव नभ का वितान है।
मानो उच्छपात बहु बीज का हुआ है तीव्र,
फट गया दाड़िम का देह-अभिमान है॥
वीर-बलवान हैं जवान महारथी सब,
मत्त राजधानी में गयन्द सम पले हैं।
कोई जो दिखाता आँख उँगली प्रमाद से है,
'संजय' उछल तुच्छ मच्छिका-से मले हैं।
रहता है प्रेम से जो शोभता है तुंग पर,
जनु नाग विषधर राखे शम्भु गले हैं।
क्षयकारी काल आता रण में अकाल आता,
सैनिक महोबा के प्रचण्ड जब चले हैं॥
त्रैलोक्य 'वामदेव' सुवन परमर्दि के हैं,
गर्रा और रीवा-अभिलेख बतलाते हैं।
वीरवर्म-भोजवर्म भूपति हम्मीर हुए,
नृपति शशांक जू शशांक सम भाते हैं।
हर्षवर्म-भीमवर्म-परमर्दि-परमाल,
हर्ष-भीम-कीर्ति-अरिमर्दन सुहाते है।
भूपति मदनदेव-कीर्तिराज-परमाल,
कंकरेडिका के वीर राव कहे जाते हैं॥
कीर्तिराज-दुहिता हैं दुर्गावती ख्यात हुईं,
खेलतीं जो हाथ लिये भाला-तलवार हैं।
गढ़मण्डला के भूप दलपतिशाह किये,
रानी के हृदय पर प्रीति-अधिकार हैं।
कुसमय चक्र आया, पति की है मृत्यु हुई,
होने लगे शत्रुओं के प्रबल प्रहार हैं।
किन्तु महारानी बनीं वीरता की प्रतिमूर्ति,
दुर्गरक्षिका-सी भव्य दुर्गा-अवतार हैं॥