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चन्द्र शेखर आजाद / श्रीकृष्ण सरल / अखण्ड भारत / पृष्ठ १

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मैं नगर कानपुर, भूल नहीं पाता वह दिन,
जब आसमान से सूरज आग उगलता था।
लगता था, जैसे किरणें गर्म सलाखें हैं,
धरती का चप्पा-चप्पा उनसे जलता था।

लू के प्रवाह का क्रुद्ध प्रवर्तन ऐसा था,
जैसे कि भयंकर आग पिघल कर आई हो।
या प्रलय-सूर्य ने स्वयं आगमन के पहले
आगमन-सूचना की पत्रिका पठाई हो।

लगता था, जैसे, सौ-पचास भट्टियाँ नहीं,
बन गया नगर ही एक बड़ा-सा भट्टा है।
चिमनियों, धुएँ के असित-रंग-आकर्षण से,
आतप सारा का सारा यहाँ इकट्ठा है।

सारा का सारा नगर एक भारी कढ़ाह,
जिसमें पड़कर चेतन-जीवन खलबला रहा।
लू के झोंके कर देते जीवन अस्त-व्यस्त,
जैसे कढ़ाह में कोई कोंचे चला रहा।

ऐसे आलम में लोग प्राण-रक्षा करने,
दुबके बैठे अपने-अपने घर के बिल में।
कुछ कर्मयोग के साधक उस दोपहरी में,
लड़ रहे धूप से, आग लिए अपने दिल में।

आजाद साथ दल के, था वन-वन भटक रहा,
लग गई पुलिस को गंध, नगर वह छान रही।
जितने अनियारी मूँछों वाले हाथ लगे,
वह पकड़-पकड़ कर उन सबको पहचान रही।

तप रही तवा जैसी धरती, पर वीर उधर,
था रौंद रहा वन को, वह दावानल जैसा।
जैसे कोई औघड़ हो, जीत रहा ऋतु को,
या धुनी भटकता हो कोई पागल जैसा।

अपने मित्रों के प्रति उसका उद्बोधन था,
साथियो! आज जीवन की सही समीक्षा है।
यह धूप न केवल अपने लिए चुनौती है,
यौवन के उन्मादों की कठिन परीक्षा है।

तप रहे खून की गर्मी से, क्या धूप उन्हें,
चाँदनी समझ उसको, वे रास रचाते हैं।
जो अपने यौवन की ही आग लिए फिरते,
वे किसी लपट से दामन नहीं बचाते हैं।

जिनके यौवन का खून खौलता नहीं कभी,
वे आग और लपटों की चर्चा करते हैं।
जिनके शोणित में आग प्रवाहित होती है,
ज्वालाओं के तल में वे लोग उतरते हैं।

हम मस्तक अपने रख हथेलियों पर फिरते,
कोई प्रचण्ड आतप क्या हमें डराएगा।
अपने सर से हम कफन बाँध कर ही निकले,
क्यों काल नहीं फिर हमसे मुँह की खाएगा।

हम आज़ादी की देवी को करने प्रसन्न,
अपने प्राणों के पुष्पहार लेकर निकले।
निश्चित है, उसकी भेंट चढ़ेंगे ही हम सब,
हम में से कुछ, कुछ पीछे, या कुछ, कुछ पहले।

इसलिए प्रतिज्ञा करें कि कोई दुर्बलता,
दल के गौरव पर कालिख नहीं लगाएगी।
यदि देशद्रोह की गंध तनिक भी आई, तो,
गोली ही उसको अनुशासन समझाएगी।

जो मानचित्र खींचा है हमने भारत का,
अपने शोणित, का हम सब उसमें रंग भरें।
जीवन में और मरण में एक-दूसरे के-
हम साथ रहेंगे, मिलकर यह संकल्प करें।

लग गई होड़, 'यह लो ! यह लो!` कहकर सबने,
अपने हाथों से अपना-अपना खून दिया।
जो मानचित्र खींचा अखण्ड भारत का था,
उसको रंग कर, जीवन को जोश-जुनून दिया।