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चन्द्र शेखर आजाद / श्रीकृष्ण सरल / ओरछा अज्ञात योगी / पृष्ठ १

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ओरछा नाम, मैंने भी जीवन देखा,
मैं ग्राम-नगर दोनों की सीमा-रेखा।
खण्डहर, बीते वैभव की याद दिलाते,
अब लहाराते हैं खेत गाँव के नाते।

खण्डहर जिनमें साहित्य दबा सोता है,
उसकी साँसों का भास मुझे होता है।
लगता है, जैसे केशव बोल रहे हैं,
कानों में जैसे मधुरस घोल रहे हैं।

लगता है, जैसे इन्द्र-सभा मुखरित है,
लगता है, जैसे राज प्रजा का हित है।
लगता है, जैसे हर घर कला-निकेतन,
लगता, जैसे रस-सराबोर जड़-चेतन।

स्वर के झूलों पर राग झूलता दिखता,
गौरव से है हर वृक्ष फूलता दिखता।
कुछ छायाएँ, जैसे हिलती-डुलती हैं,
जैसे वे आपस में मिलती-जुलती हैं।

प्रेरणा यहाँ है प्राणवन्त कण-कण में,
युग के युग जैसे समा रहे हर क्षण में।
बीते वैभव की याद गर्व बनती है,
वह वर्तमान को पुण्य-पर्व बनती है।

चढ़ रही धूल यश पर यद्यपि विस्मृति की,
पर है विचित्र कुछ चाल समय की गति की।
कोई झोंका आता है धूल उड़ाता,
वह मेरे गौरव को फिर से चमकाता।

कुछ दिन पहले ही ऐसा झोंका आया,
वह मुझको बिलकुल नई चेतना लाया।
वह पवन झकोरा मनुज-देह-धारी था,
वह कोई पहुँचा हुआ ब्रह्मचारी था।

पूछा,तो बोला नाम हरीशंकर है,
जीवन बिलकुल आजाद, देश ही घर है,
जिस जगह लगा मन, योगी रम जाता है।
जीवन-प्रवाह कुछ दिन को थम जाता है।

उस योगी में कुछ कांति विलक्षण देखी,
अव्यक्त साधना उसमें हर क्षण देखी।
तन ऐसा, जैसे पैरुष देह धरे हो,
मन ऐसा, जैसे पूरा सिंधु भरे हो।

मुख पर ज्वलन्त जैसे संकल्प लिपे हों,
वाणी में जैसे अगणित भेद छिप हों।
आँखों में जैसे कोई लौ जलती हो,
संसृति, जैसे संकेतों पर चलती हो।

योगी की कुटिया थी सातार किनारे,
हो सिद्धि खड़ी जैसे साधन के द्वारे।
फलवती हुई हो जैसे कठिन तपस्या,
या लिए चुनौती कोई जटिल समस्या।

सातार, कि जैसे इच्छा मचल रही हो,
`चाँदी' जैसे आतप से पिघल रही हो।
चलती, तो चट्टानों से टकराती थी,
वह उछल-उछल संघर्ष गीत गाती थी।

कहती हो जैसे, जीवन केवल गति है,
गतिशील समय, गतिशील स्वयं संसृति है।
यदि बैठ गए थक कर, जीवन की यति है,
जीवन की यति, बस दुर्गति ही दुर्गति है।

वह कुटिया भी उसकी हाँ में हाँ भरती,
संघर्ष निरन्तर क्रुद्ध पवन से करती।
जर्जरित पात झोंकों से उड़ जाते थे,
योगी के श्रम से वे फिर जुड़ जाते थे।

वर्षा आती, तो छाजन रोक न पाता,
योगी कोने में सिमटा रात बिताता।
था शिशिर-समीरण, जैसे तीर चलाता,
हड्डी-हड्डी को भेद प्राण छू जाता।

कोई योगी को विचलित कर न सका था,
डर उसे डराता, पर वह डर न सका था।
अर्जुन-वृक्षों पर झुकता घना अंधेरा,
भूतों-प्रेतों का जैसे उन पर डेरा।

हर रात विकट भय की सराय होती थी,
जंगली हवा की साँय-साँय होती थी।
बाहर हू! हू! करके शृगाल रोते थे,
अच्छे-अच्छे अपना धीरज खोते थे।

थे कभी भयानक वन पशु शोर मचाते,
दरवाजे पर ही सिंह कभी आ जाते।
योगी, जैसे भय का दुर्भेद्य किला था,
पर्वत जैसा अविचल मन उसे मिला था।

श्रम उसके जीवन का अति पावन क्रम था,
बजरंग बली की पूजा नित्य-नियम था।
सिंदूरी चोला उन्हें चढ़ाया करता,
कुछ इधर-उधर भी वह हो आया करता।

जा रहा एक दिन था वह वन-प्रांतर में,
थे घुमड़ रहे कुछ भाव सजग अन्तर में।
आ निकट, पुलिस वालों ने उसको घेरा,
`सच-सच बतला क्या असल नाम है तेरा?

लगता, तू ही आजाद क्रांन्तिकारी है,
यह भेष बदल कर बना ब्रह्मचारी है।
हम अभी साथ ले चलते तुमको थाने,
सब आ जाएगी तेरी अकल ठिकाने।

योगी बोला, ``क्यों तुम सब मुझे सताते,
आजाद क्रांन्तिकारी क्यों मुझे बताते।
वैसे मैं हूँ आजाद क्योंकि योगी हूँ,
मैं नहीं किसी का चर वेतन-भोगी हूँ।

जिसने घर छोड़ा, बना ब्रह्मचारी है,
वह व्यक्ति कर्म से सदा क्रांन्तिकारी है।
पर छोड़ो इन बातों को तुम घर जाओ,
मैं हनूमान का भक्त, न मुझे सताओ।

बजंरग बली को चोला मुझे चढ़ाना,
जब जी चाहे, तुम भी प्रसाद ले जाना।
योगी ने उनको भरमाया बातों में,
क्या जीते उससे कोई प्रतिघातों में।

उनको टरका, योगी कुटिया पर आया,
निज इष्टदेव को आकर शीष नवाया।
बोला, ``बंजरगी! खूब बचाया तूने,
संकट में अच्छा मार्ग सुझाया तूने।

पकड़ा जाता तो हवा जेल की खाता,
सब किए कराए पर पानी फिर जाता।
तेरे बल पर मैं हर दम यही कहूँगा,
आजाद नाम, हरदम आजाद रहूँगा।

पैदा न हुआ कोई, जो मुझको पकड़े,
जंजीरों में मुझको क्या कोई जकड़े।
यह पुलिस, स्वयं हारेगी और थकेगी,
जीते जी, मेरी छाया छू न सकेगी।