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चन्द्र शेखर आजाद / श्रीकृष्ण सरल / दिल्ली इतिहास की करवटें / पृष्ठ १

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मैं दिल्ली हूँ, युग-युग से रही राजधानी,
भारत के गौरव की प्रख्यात धुरी हूँ मैं।
जो मेरे हैं, मैं उन्हें प्यार की गल-बाँही,
जो शत्रु, कलेजे को विष-बुझी छुरी हूँ मैं।

मेरी नजरों में इतिहासों के प्रलय-सृजन,
हर नजर, खुमारी से बोझिल है बाकी है।
जब ऐसी-वैसी नजर किसी ने फेंकी तो,
उसकी छाती मैंने कीलों से टाँकी है।

मैंने झेली है कड़ी-कड़कती धूप कभी,
तो कभी दूधिया मैं चाँदनी नहाई हूँ।
वैभव-विलास की चकाचौंध पर रीझी हूँ,
पर नहीं कभी उसमें भटकी-भरमाई हूँ।

मैं नहीं किसी की शोख नजर जैसी चंचल,
जो प्यार छिपा कर रखता, मैं उस दिल जैसी।
मैं नहीं किसी चौराहे जैसी भीड़-भाड़,
जो जमे कायदे से, मैं उस महफिल जैसी।

मेरे गौरव की बात पूछते मुझसे ही,
मदमाये फूलों और बहारों से पूछो।
मैंने जीवन में कैसे-कैसे दिन देखे,
सूरज से पूछो चाँद-सितारों से पूछो।

हर कंकड़ ही कुछ लिए कहानी पड़ा हुआ,
कुछ यश गाथा लेकर है हर मीनार खड़ी।
तिलमिला गई, पर मैंने होश नहीं खोया,
जब कभी मुसीबत की हैं मुझ पर मार पड़ी।

आ पड़ी मुसीबत ऐसी ही मुझ पर तब थी,
जब धोखे से लद गया फिरंगी शासन था।
मैं हुंकारी, फुंकारी, झटके दिए कई,
बन गया घोर विद्रोही मेरा जीवन था।

सन सत्तावन में मेरा जौहर जागा, तो,
मेरी लपटों ने खूनी रास रचाया था।
अपने बेटों की आहुतियाँ मैंने दी थीं,
पर भारत के गौरव को सदा बचाया था।

वह जफर, चार बेटों की बलि दी थी उसने,
आजादी के हित उनने शीष कटाए थे।
वे कटे हुए सर रखे बाप के हाथों में,
बर्बर अँग्रेजों ने ये रंग दिखाये थे।

साम्राज्यवाद की खूनी प्यास बढ़ी इतनी,
बहशी हडसन ने सचमुच उनका खून पिया।
मैंने अपनी आँखों से यह सब कुछ देखा,
मैं चीखी-चिल्लाई, पर किसने ध्यान दिया।

कहते, आजादी बिना बहाए खून मिली,
मैंने ऐसी-ऐसी कीमतें चुकाई हैं।
मेरे बेटे फाँसी के फन्दों पर झूले,
तब ये सुहावनी घड़ियाँ घर में आई हैं।

तुम पूछ रहे कुर्बानी मेरे बेटों की,
मेरी जबान पथराई, क्या कह पाऊँगी।
बैठे, यह चित्रावली दे रही मैं तुमको,
पन्ने पलटो, इसकी झाँकियाँ दिखाऊँगी।