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चपाती / नज़ीर अकबराबादी

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जब मिली रोटी हमें, सब नूरे हक़ रोशन हुए।
रात दिन, शम्सो क़मर शामो शफ़क़ रोशन हुए॥
ज़िन्दगी के थे जो कुछ, नज़्मो नस्क़<ref>इंतजाम, व्यवस्था</ref> रोशन हुए।
अपने बेगानों के लाज़िम, थे जो हक़ रोशन हुए॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥1॥

वह जो अब खाते हैं बाक़र खानी, कुलचा<ref>खमीरी टिकिया</ref> शीरमाल।
हैं वह ख़ासुलख़ास, दरगाहे करीमे जुलजलाल<ref>प्रताप वाला दयालु और प्रताप वाले ईश्वर की दरगाह में वे ही प्रमुख हैं।</ref>॥
यह जो रोटी दाल का रखते हैं हम गर्दन में जाल।
जब मिली रोटी वहीं हम हो गए साहिबे कमाल॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥2॥

वह तो अब मर्दे ख़ुदा हैं, कुब्बत जिनका नूर है।
वह मलाइक<ref>देवता, फरिश्ते</ref> हैं, वहां रोटी का क्या मज़कूर है॥
दिल हमारा तो फ़कत, रोटी का अब रंजूर<ref>दुखी, रोगी, बीमार</ref> है।
हम शिकम बन्दो का यारो, बस यही दस्तूर है॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥3॥

पेट में रोटी पड़ी, जब तक तो यारो खै़र है।
गर न हो फिर गै़र का अपने ही जी से बैर है॥
खाते ही दो तर निवाले आसमां पर पैर है।
आसमां क्या, फिर तो ख़ासे, ला मकां की सैर है॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥4॥

जब तलक रोटी का टुकड़ा हो न दस्तर ख़्वान पर।
ने नमाज़ों में लगे दिल, और न कुछ र्कुआन पर॥
रात दिन रोटी चढ़ी, रहती हैं सबके ध्यान पर।
क्या खु़दाका नूर बरसे हैं पड़ा हर नान पर॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥5॥

गर न हों दो रोटियां और एक प्याला दाल का।
खेल फिर बिगड़ा फिरे, यां हाल का और क़ाल का॥
गर न हो रोटी तो किसका पीर किसका बाल का।
बस्फ<ref>प्रशंसा, तारीफ़</ref> किस मुंह से करूं मैं नान के अह्वाल का॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥6॥

पेट में रोटी न थी जब तक दो आलम था स्याह।
जब पड़ी रोटी, तो पहुंची अर्श के ऊपर निगाह॥
खुल गए पर्दे थे जितने माही से ले ताबा माह।
क्या करामत है फ़क़त रोटी में यारो वाह, वाह॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥7॥

यूं चमकता है पड़ा हर आन गिरेव<ref>गिरेवः ढेर, टीला</ref> नान का।
जान आती है, लिये से नाम दस्तरख़्वान का॥
चांद का टुकड़ा कहूं मैं, या कि टुकड़ा जान का।
रूह नाचे है बदन में, नाम सुनकर ख़्वान का॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥8॥

हुस्न जितने हैं जहां में, सब भरे हैं नान में।
खूबियाँ जितनी हैं आकर सब भरी हैं ख़्वान में॥
आशिक़ो माशूक भी टिकिया के हैं दरम्यान में।
फंस रहे हैं, सबके दिल, रोटी के दस्तरख़्वान में॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥9॥

जो मुरीद अपना किसी दुरवेश को करता है पीर।
यानी कुछ देखे तजल्ली की करामत दिल पज़ीर॥
खाते ही दो रोटियां, दिल हो गया बदरे मुनीर।
कोई रोटी सा नहीं, अब पीरो मुर्शिद ऐ ‘नज़ीर’॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥10॥

शब्दार्थ
<references/>