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चमकी कहीं जो बर्क तो एहसास बन गई / गणेश बिहारी 'तर्ज़'
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चमकी कहीं जो बर्क तो एहसास बन गई
छाई कहीं घटा तो अदा बन गई ग़ज़ल
आंधी चली तो कहर के साँचें में ढल गई
बादे सबा चली तो नशा बन गई ग़ज़ल
उठ्ठा जो दर्दे इश्क़ तो अश्कों में ढल गई
बेचैनियाँ बढीं तो दुआ बन गई ग़ज़ल
अर्ज़े दकन में जान तो देहली में दिल बनी
और शेहरे लखनऊ में हिना बन गई ग़ज़ल