भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चमगीदड़ / गोपालबाई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक बार पशु और पक्षियों में ठन गयी लड़ाई घोर।
चमगीदड़ ने सोचा ‘हूँगा जो जीतेगा उसकी ओर’॥
कई दिनों के बाद लख पड़ी उसे जीत जब पशु-दल की।
आय मिला पशुओं में फ़ौरन करने लगा बात छल की॥
‘‘भाई! मैं भी तुममें से हूँ पशु के मुझ में सब लक्षण।
पशुओं से मिलते हैं मेरे रहन-सहन, भोजन-भक्षण॥
दाँत हमारे पशुओं के-से मादा ब्याती बच्चों को।
सब पशुओं के ही समान वह दूध पिलाती बच्चों को॥
सुन उसकी बातें पशुओं ने अपने दल में मिला लिया।
अगले दिन पक्षी-दल ने पशुओं पर भारी विजय किया।
उसी समय पक्षी-सेना ने चमगीदड़ को पकड़ लिया।
घबड़ाकर चमगीदड़ ने पक्षी-नायक से विनय किया॥
‘‘आप हमारे राजा हैं, हम भी पक्षी कहलाते हैं।
फिर क्यों हम अपने ही दल से वृथा सताये जाते हैं॥
देखो पंख हमारे, हम उड़ते हैं, पेड़ों पर रहते हैं।
हाय आज झूठी शंका-वश अपने दल में दुख सहते हैं।’’
सुन चमगीदड़ की बातें पक्षी-नायक ने छोड़ दिया।
जान बीच चमगीदड़ की तब उसने जय-जयकार किया॥
हुई लड़ाई अन्त, अन्त में सुलह हुई दोनों दल में।
भेद खुला चमगीदड़ का सारा सब लोगों में पल में॥
तब से वह ऐसा शर्माया दिन में नहीं निकलता है।
अन्धेरे में छिपकर चरता नहीं किसी से मिलता है।
समय पड़े जो दोनों दल की करते हैं ‘हाँ जी, हाँ जी’।
वे चमगादड़ के सामन दोनों की सहते नाराज़ी॥