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चमड़े के बारे में सोचना / कर्मानंद आर्य

Kavita Kosh से
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इक्कीसवीं सदी में
जब दुनिया चाँद के बारे में सोचती है
तब हम सोचते हैं
सिर पर लदे हुए चमड़े के बारे में
इक्कीसवीं सदी में
जब दुनिया चाँद पर जाती है
हम जाते हैं कसाई खाने
आज जब किसी का रंग पहचानना कठिन है
एक वर्ण दूसरे को लील रहा है
तब हम कछुए की तरह चमड़े को फैला रहे हैं
रंग रहे हैं मालिकाना रंग में
मलिकनी भावों में उतार रहे हैं सुन्दर ख्वाब
जब कोई नहीं सोच रहा
तब हम सोच रहे हैं
कैसे होगी , कृत्रिम विस्तारित चमड़े की दुनिया
हमारी सोच का विस्तार है चमड़ा
हमारे देश की देह
हमारी देह की थिलगियाँ हैं चमड़े का रंग
चमड़े का ज्ञान हमें बनाता है बुद्धिमान
हमारा वेद, पुराण, गीता, संविधान
सब चमड़े का बना है
इक्कीसवीं सदी में हम सोच रहे हैं
इक्कीसवीं सदी से कैसे अगल होगा
बाईसवीं सदी में चमडे का रंग
इक्कीसवीं सदी में
जब दुनिया चाँद के बारे में सोचती है
तब हम सोचते हैं
सिर पर लदे हुए चमड़े के बारे में
इक्कीसवीं सदी में
जब दुनिया चाँद पर जाती है
हम जाते हैं कसाई खाने
आज जब किसी का रंग पहचानना कठिन है
एक वर्ण दूसरे को लील रहा है
तब हम कछुए की तरह चमड़े को फैला रहे हैं
रंग रहे हैं मालिकाना रंग में
मलिकनी भावों में उतार रहे हैं सुन्दर ख्वाब
जब कोई नहीं सोच रहा
तब हम सोच रहे हैं
कैसे होगी , कृत्रिम विस्तारित चमड़े की दुनिया
हमारी सोच का विस्तार है चमड़ा
हमारे देश की देह
हमारी देह की थिलगियाँ हैं चमड़े का रंग
चमड़े का ज्ञान हमें बनाता है बुद्धिमान
हमारा वेद, पुराण, गीता, संविधान
सब चमड़े का बना है
इक्कीसवीं सदी में हम सोच रहे हैं
इक्कीसवीं सदी से कैसे अगल होगा
बाईसवीं सदी में चमडे का रंग