चमन के रंग ओ बू में तू, / रिंकी सिंह 'साहिबा'
चमन के रंग-ओ-बू में तू, मचलती आरज़ू में तू,
वफ़ा की जुस्तजू में तू, तुझी पे ज़ीस्त वार दूँ।
रगों में तू ही है रवां, है धड़कनों में तू जवां,
तुझी से है सुकून-ए-जाँ, तो क्यों न तुझको प्यार दूँ।
तू रूह में चमक उठा, तू ख़्वाब में झलक उठा,
ज़मीं से जब फ़लक उठा, तू बन के इक धनक उठा,
तेरी वफ़ा के नाज़ पर, नज़ूल-ए-जाँ गुदाज़ पर,
कि इश्क़-ए-सरफ़राज़ पर, मैं ख़ुद को क्यों न हार दूँ।
तेरे जमाल पर लुटा दूं, मैं जहाँ की शोखियां,
तुझी से है मेरी अदा, तुझी से हैं ये मस्तियाँ,
नज़र को भा गया है तू, कि दिल पे छा गया है तू,
तेरी पनाह में तमाम ज़िंदगी गुज़ार दूं।
मैं आब भी, शराब भी, मैं इश्क़ का जवाब भी,
गुलों का मैं शबाब भी, ग़ज़ल का इन्क़िलाब भी,
मुझी से है फ़िज़ा का रंग, मुझसे ही हया का ढंग,
खिजां के मौसमों को, अब मैं बाद-ए-नौ बहार दूं।
मैं लख़्त-लख़्त बँट गई, बिखर-बिखर सिमट गयी,
कि तुझसे जो ख़ुशी मिली, वो ज़ीस्त से लिपट गई,
मेरे हबीब पास आ, न रूठ कर यूं दूर जा ,
मैं ज़ख़्म तेरे चूम कर, ये ज़िंदगी संवार दूं।
मेरी अदा में बदलियां, नज़र नज़र में बिजलियाँ,
मेरे हर एक नक़्श-ए-पा में खेलती बुलंदियां,
नफ़स-नफ़स बिखर के मैं, हदों से अब गुज़र के मैं,
गली गली बुहार दूँ, कली कली निखार दूँ।
के दिल के ज़ख़्मों का भंवर, दिखा रहा है रहगुज़र,
है मंज़िलों पे जब नज़र, शुरू करूँ न क्यों सफ़र,
निगाह गर उठा दूँ मैं, जहां को जगमगा दूं मैं,
फ़लक से मेहर-ओ-माह को ज़मीन पर उतार दूँ।