भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चमन में भी रहूँ तो क्या / देवी नांगरानी
Kavita Kosh से
चमन में भी रहूँ तो क्या, चुभन काटों के जैसी है
भले हो बात मामूली मगर खंजर-सी लगती है
न रास आई ख़ुशी मुझको जो दस्तक देने आई थी
ग़मों से प्यार है मेरा, उन्हीं के साथ निभती है
ज़रूरत ही नहीं कहने की, मिलती है ख़बर उसको
कहाँ होते हैं कान उसके, मगर दीवार सुनती है
नहीं है लुत्फ़ जीने में, है वीरानी-सी इस दिल में
ये महफ़िल भी मुझे तो सूनी-सूनी-सी ही लगती है
तस्व्वुर में है तू ही तू, नज़र में अक्स है तेरा
जहाँ देखूँ वहीं तेरी, मुझे तस्वीर छलती है
जला हूँ रात भर लेकिन, सवेरा देखना बाक़ी
वो शम-ए-सोज़ां ही क्या जो जलाए बिन ही बुझती है
निशाना क्यों बनी ‘देवी’, लहू दिल से है क्यों टपका
वफ़ा करने के बदले में सज़ा क्यों मुझको मिलती है