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चम्बा / कुमार कृष्ण

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जब तक नहीं हुआ था देश पर
एडीडास, ली कूपर, री बॉक का हमला
घूमती थी देस-परदेस में
अपने राजसी ठसके के साथ
चम्बा की चप्पल
निहारती हैं आज उसकी निराश आँखें
आते-जाते लोगों को लगातार
करती हैं इन्तज़ार सुबह से शाम तक
दीवार पर टँगी उदास चप्पलें
चली जाएँगी एक दिन-
भूरी सिंह अजायबघर के अन्दर
जैसे चला गया चम्बा का रूमाल

चम्बा के पास है-
अपना चौगान, अपनी इरावती
खजियार के जंगल, जोत का पहाड़, मंगला गाँव
उसके पास हैं छोटे-छोटे मोहल्ले बेशुमार
उसी में बाँचता है अजय कुमार-
जन्म कुंडलियाँ
पढ़ता है मनुष्यों का भविष्य
लिखता था यहीं नंदेश कुमार आधी-अधूरी कविताएँ
आज शरत कुमार करता है-
'नाकाबन्दी की बगावत'
प्रकाश कारीगर उकेरता है पीतल की थाली पर
टोपी वाले विष्णु
रिश्तों की मरम्मत में मस्रूफ हैं भोगेन्द्र कुमार
नहीं मुरझाई भाषाओं के तपते रेगिस्तान में
चंबियाली बोली की कोंपलें
नहीं भूले लोग आपस में जरीस बाँटना

लोगों का दुःख सुनते-सुनते
थक चुकी हैं लक्ष्मीनारायण की घंटियाँ
सुन रही हैं वर्षों से दर्द की दास्तान
घंटियाँ जानती हैं बस सुनना
वे हैं जन्मजात गूँगी
जानती हैं अच्छी तरह-
सच बोलने पर राजा कटवा देते थे जीभ
इतना आसान नहीं-
पुराने डर से मनुष्य का बाहर आ पाना

अखण्ड चण्डी, रंग महल के दरवाज़ों पर
अब नहीं नज़र आते राजा के दरबान
फिर भी पूरी तरह नहीं गयी-
चम्बा की गलियों से राजा की गन्ध
राजमहल का ख़ून ही जीतता है-
चुनाव की जंग हर बार
मंगला का लोक गायक आज भी गाता है-
'राजा तेरे गोरखयां ने, लुटिया पहाड़ राजा लुटिया पहाड़!'