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चराग़-ए-मह सीं रौशन तर है हुस्न-ए-बे-मिसाल उस का / 'सिराज' औरंगाबादी

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चराग़-ए-मह सीं रौशन तर है हुस्न-ए-बे-मिसाल उस का
कि चौथे चर्ख़ पर ख़ुर्शीद है अक्स-ए-जमाल उस का

सनम की ज़ुल्फ़ के हल्क़े में है ज्यूँ जीम का नुक़ता
अजब है खुशनुमा उस आरिज़-ए-गुलगूँ पे ख़ाल उस का

अयाँ होता है ज्यूँ-कर सर्व पानी के किनारे पर
हुआ यूँ जलवा-गर आँखों में क़द्द-ए-नौनिहाल उस का

जुदा जब सीं हुआ वो दिल-बर-ए-जादू-नज़र मुज सीं
जुदा होता नहीं यक आन ख़ातिर सीं ख़याल उस का

मुझे है आरज़ू दिल में तिरी चाह-ए-ज़नख़दाँ की
नहीं दरकार हौज़-ए-कौसर ओ आब-ए-ज़ुलाल उस का

गिरफ़्तार-ए-हवस क्या लज़्ज़त-ए-दीदार कूँ पावे
जुदा जो कोई हुआ है आप सीं पाया विसाल उस का

‘सिराज’ ऐ शोला-रू है कौन सा सो मैं नहीं वाक़िफ़
मुझे क्या पूछता है पूछ परवाने सीं हाल उस का