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चराग़ ए आरज़ू है / रिंकी सिंह 'साहिबा'

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चराग़ ए आरज़ू है, और मैं हूँ,
वफ़ा की जुस्तजू है, और मैं हूँ।

वो चुप है और मैं ख़ामोश लेकिन,
अजब-सी गुफ़्तगू है और मैं हूँ।

फ़लक का शम्स तो बस इक गुमां है,
मेरे दिल का लहू है और मैं हूँ।

फ़क़त दो लोग हैं सारे जहाँ में,
ऐ मेरे यार तू है और मैं हूँ।

बहुत ही दूर वह रहता है फिर भी,
नज़र के रु ब रु है और मैं हूँ।

नहीं होता वह गर हम भी न होते,
वही तो कू ब कू है, और मैं हूँ।

उसी का अक्स है सारे जहाँ में,
वो मेरे चार सू है और मैं हूँ।

कहाँ तन्हा हूँ जीवन के सफ़र में,
अना है, ज़िद है, खू है, और मैं हूँ।

मुझे लिखता है वह मेरे ही जैसा,
कोई तो हू ब हू है, और मैं हूँ।

तुम्हारे इश्क़ के गुलशन में साहिब,
बड़ी रंगत है, बू है और मैं हूँ।

सफ़र है 'साहिबा' तख़लीक़ का ये,
ग़ज़ल की आबरू है और मैं हूँ।