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चराचर / वीरेन्द्र कुमार जैन
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निःस्वप्न दोपहरी :
उस सुनसान टीले पर
चरती
एकाकिनी गाय
अचर हो गई :
उसकी टाँगों में
चौखम्भे अलिन्द में
पृथिवि आकाश हो गई है :
आकाश पृथिवि हो गया है :
चर अचर हो गया है :
अचर चर हो गया है...!
रचनाकाल : 21 मई 1963, गजपन्थ सिद्धक्षेत्र