चरित्र कंगाल न होता / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
सघन विचारों के जंगल में कोई ठोस डगर मिल पाती ।
करती प्रगति सतत गति अपनी सोयी शान्ति कान्ति जग जाती ।
कदम कदम आतंक न होता, डगर डगर सकलंक न होती
जीवन कहीं सशंक न होता आलोकित होती सँझवाती ।
अपने होते सभी धरा पर सबसे दिल का नाता होती ।
खिल खिल मानव धर्म विहँसता गोली की बोली मिट जाती
सूरज चन्दा तारे प्यारे प्यारे सबके दिल में होते
सब पर सबका प्यार बरसता जीवन बगिया गंध लुटाती ।
द्वार द्वार ताले न लटकते गली गली काले न लपकते
मरूथल मतवाले न दहकते शुचि शीतल गंगा लहराती ।
टुकड़े टुकड़े धर्म न होता, उजड़ा उजड़ा कर्म न होता ।
दुखड़ा दुखड़ा प्यार न होता मानवता आँसू न बहाती
मन का मधुबन मधुबन होता जीवन जीवन चन्दन होता ।
हदय भक्ति का श्यन्दन होता अम्बर हँसता धरा सिहाती ।
जाति पाँति का जाल न होता घर घर मचा बवाल न होता ।
युग चरित्र कंगाल न होता नैतिकता अमरत्व जगाती ।
आँचल आँचल दाग न होते, कटु अधर्म के राग न होते,
अस्तीनों में नाग न होते, जीवन मणि आलोक लुटाती ।