चर्बी महोत्सव / मनमोहन
जिस तरह प्लास्टिक और पॉलीथिन हमारी नई सभ्यता है
जो अजर अमर हो गई है
चर्बी हमारी नई कल्चर है
जो इतनी नई भी नहीं
आप देख सकते
यह हमारी आँखों के आसपास सहज ही जमा हो जाती है
या गालों पर
या गलफड़ों में उतर आती है
दरअसल, हम चर्बी से बेहाल हुए जाते हैं
हमारी हँसी में चर्बी है
हमारे चुटकुलों में भी यह कम नहीं
बातों में बातें कम चर्बी ज़्यादा है
हाँ, बस रोना चाहें तो ढ़ंग से रो नहीं सकते
समझिए कि एक महोत्सव है
ख़ूबसूरत औरतें और क़ामयाब मर्द सब एक जगह
एक झुरमुट में व्यस्त हैं
लुक़मा चबलाते
बार-बार कन्धे उचकाते हैं
हमारा संप्रभु राष्ट्र-राज्य यही है
और इनके दायरे के बाहर सब दुश्मन देश
देखिए हमारे गोलमटोल बच्चे
जो कल को प्रबन्ध हाथ में लेंगे
अभी किस तरह तुतलाकर दिखलाते हैं
किस तरह खेल-खेल में वे कीटाणुओं को खदेड़ कर
भगा देते हैं और उनके दाँत कैसे चमकते हैं !