चलकर सबको चार कदम / सरोज मिश्र
पथ में चाहें शूल बिछे हों, या बिखरे हों फूल नरम!
पिय के घर तक तो जाना ही चलकर सबको चार कदम!
बात अलग कोई चल देगा,
घर से अपने सुबह सबेरे!
कोई निकला भरी दुपहरी,
तो फिर कोई रात अन्धेरे!
सत्य नहीं कुछ, सब है माया,
ठौर ठौर पर भूल भुलैय्या!
जप तप करके राधा हारी,
मिले न पूरे किशन कन्हैय्या!
नदियों में मझधार छिपे हों, भले तटों की रेत गरम!
पिय के घर तक तो जाना ही चलकर सबको चार कदम!
सम्बन्धों का आकर्षण तो,
स्वर्ण हिरण-सा है भरमाता!
किन्तु सत्य है सबका सबसे,
केवल परिचय भर का नाता!
समझ रहे हम जिनको अपना
सच पूछो तो सभी पराये,
ये ऐसा बाज़ार जहाँ कुछ,
खरीदार, कुछ बिकने आये!
दर्द खरीदों चाहें बेचों अपने हिस्से का मरहम!
पिय के घर तक तो जाना ही चलकर सबको चार कदम!
रंग ढलेगा हर मूरत का,
हर सूरत कल ढल जाएगी!
पछुआ की बर्फीली चादर,
पूरब छूकर जल जाएगी!
धरा निमंत्रण भेजे लाखों,
अम्बर तिल भर नहीं झुकेगा!
काल का पहिया सरयू तट तक,
नहीं रुका था नहीं रुकेगा!
मीत गीत ये पढ़कर मेरा मत करना तुम आंखे नम!
पिय के घर तक तो जाना ही चलकर सबको चार कदम!