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चलते-चलते तू क्यों रुक गया है यहाँ / आलोक यादव
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चलते - चलते तू क्यों रुक गया है यहाँ
मेरे दिल तू किसे खोजता है यहाँ
प्रीतनगरी में आने से पहले ज़रा
सोच ले दर्द कुल देवता है यहाँ
वेदना मन्त्र है अश्रु का आचमन
सबके होंठों पे बस याचना है यहाँ
एक के वास्ते सब स्वजन छूटते
सोच का संकुचित दायरा है यहाँ
चाहिए था दिया देहरी को तेरी
मैंने लेकिन जिया रख दिया है यहाँ
चीख़ किसकी उभरती है प्राचीर से
किसको दीवार में चिन दिया है यहाँ
ऊँची अट्टालिकाएँ नहीं देखतीं
कौन सब कुछ लुटाए खड़ा है यहाँ
ज्ञान परिणाम का है सभी को मगर
है वो क्या जो हमें खींचता है यहाँ
यूँ तो कहने को 'आलोक' आज़ाद हैं
शेष पर मानसिक दासता है यहाँ