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चलते-चलते राह में / प्रवीण कुमार अंशुमान

चलते-चलते राह में
अचानक वह मिल गयी थी एक दिन,
देखते ही देखते
उसने पकड़ लिया था मेरा हाथ,
मगर फिर जल्दी ही
ऐसा वक्त भी साथी आया,
जब वो दूर चली गयी मुझसे
सच में दूर बहुत दूर
मगर फिर भी आज,
जब कभी भी मैं अपने हाथ पर
अपनी नजरें घुमाता हूँ,
यह देखकर
बड़ा ही अक्सर
बहुत ही हर्षित हो जाता हूँ
कि उसकी उंगलियां
मेरी उंगलियों के बीच
आज भी ठीक वैसे ही
फँसी पड़ी हैं,
जैसे पहली मुलाकात में
उसने मेरी उंगलियों से
अपनी उंगलियों को मिलाया था
आज मुझको समझ आया है
कि उसने मेरे संग अनंतकाल का
एक अद्भुत रिश्ता बनाया था ।