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चलते-चलते / राजेश शर्मा 'बेक़दरा'
Kavita Kosh से
चलते-चलते,
न जाने
क्यों और कैसे,
पहुच जाते है,
अनजान राहो पर,
सब कुछ
स्वप्न सरीखा,
शायद अहसास की
दुनिया अलग
ही होती है,
वास्तविकता से
कोसो दूर
लेकिन पीड़ा
शूल की भाति
नितांत वास्तविकता
से भी गहरी
छलनी की भाँति
आखिर क्यों
होता है ऐसा
लेकिन होता तो है,
छोड़ देता है
दिखाई न देने
वाले घाव
जो हमेशा
रिस्ते है
एकांत में
बदबूदार,
दर्द से भरे
और एकटक
देखता है
सिर्फ चुपचाप,
याद करता है
कभी खुद को,
कभी उसको
कभी ईश्वर को
और कोसता है
अपने जन्म को