भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चलते चलते एक दिन / त्रिलोक सिंह ठकुरेला
Kavita Kosh से
चलते चलते एक दिन, तट पर लगती नाव।
मिल जाता है सब उसे, हो जिसके मन चाव॥
हो जिसके मन चाव, कोशिशें सफल करातीं।
लगे रहो अविराम, सभी निधि दौड़ी आतीं।
'ठकुरेला' कविराय, आलसी निज कर मलते।
पा लेते गंतव्य, सुधीजन चलते चलते॥