भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चलते हो तो चमन को चलिये / मीर तक़ी 'मीर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चलते हो तो चमन को चलिये
कहतए हैं कि बहाराँ है

पात हरे हैं फूल खिले हैं
कम कम बाद-ओ-बाराँ है

आगे मैख़ाने को निकलो
अहद-ए-बादा गुज़ाराँ है

लोहु-पानी एक करे ये
इश्क़-ए-लालाअज़ाराँ है

इश्क़ में हमको "मीर" निहायत
पास-ए-इज़्ज़त-दाताँ है