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चलन से बाहर / मदन गोपाल लढ़ा

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अब तो सिलवानी ही पड़ेगी
कपड़ों की नई जोड़ी
शौक नहीं
मेरी मजबूरी है।

घिस गए हैं
मेरे पहनने के कपड़े
खो गई है चमक
खुलने लगे हैं टाँके
ढीले पड़ गए हैं काज
निकलने लग गए हैं बटन
दर्जी ने साफ कर दिया है इनकार
अब रफू से नहीं चलेगा काम
मरम्मत के खर्च से
कहीं बेहतर है
बनवा ली जाए
नई पोशाक
वैसे भी यह नहीं चलेगी
ज्यादा दिन।

बीवी तो कहती है
ईमानदारी के सूती कपड़ों का
अब चलन भी नहीं रहा।