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चलन / मिथिलेश श्रीवास्तव

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बुज़ुर्ग माँझी काका मेरे बुजु़र्ग नहीं थे
चलन यही कहता था ।

चँचल माँझी उनका नाम था
एक अनुमान था कि उनकी उम्र
मेरे पिता की उम्र से काफ़ी कम थी
मेरी उम्र उनकी उम्र से लगभग आधी
मेरे पिता ने उनको कभी नमस्ते करने के लिए
कहा नहीं कभी ।

माँझी काका के दोनों हाथ बँधे रहते
मेरे पिता के सामने फ़रियाद की मुद्रा में
वे मुझे देखते
उनके दोनों हाथ तपाक से लपकते मेरी ओर
मैं कभी भी जुटा नहीं पाया
एक हिचक उनकी आँखों में झलक ही जाती
कई दरवाज़ों, कई घरों, कई चेहरों, कई मौसमों
कई लीकों से टकराकर लौट आतीं उनकी आँखें
आकाश को ताकते और कहते अच्छा है मौसम

मैं एक सभ्य समाज के चलन पर चल रहा था
मेरे आठ वर्षीय बेटे के सामने हाथ जोड़े हुए
वे खड़े थे और मैं चुप था ।