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चला रहे तीरों की एवज़ / नईम
Kavita Kosh से
चला रहे तीरों की एवज,
महारथी कुछ तुक्के ज्यादा-
पैदल हो या रथारूढ़ मन,
समरभूमि में आधा-आधा।
घेरे खड़ी आज तनमन को आधि-व्याधियाँ
इनके चलते नुक्ते-घाटे, ब्याह-शादियाँ।
धर्मराज से बड़े प्रवक्ता-
केवल झूठ प्रसारित करते,
मोहन रनछोड़ी हो बैठे,
घर-घर में रोए है राधा।
हासिल हुई बड़ी मुश्किल से हमें महारत,
अपने ही तीरों से अपने हुए हताहत;
सिंहद्वार पर जन के पहरे-
दरवाजे पिछले निर्जन हैं-
लड़ना ही जब नहीं हमें
तब कैसी अड़चन, कैसी बाधा?
वंशज देख रहे चौतरफा खड़े तमाशा,
शर-शैया पर पड़ा देश ये भूखा-प्यासा;
पानीदार नहीं अब कोई-
जो तन मन अभिसिंचित कर दे,
जीवन का क्या करें भरोसा?
निकला झूठ मौत का वादा।
चला रहे तीरों की एजव,
महारथी कुछ तुक्के ज्यादा।