चलिये तो मिरे साथ जरा राहगुजर तक / नज़ीर बनारसी
चलिये तो मिरे साथ जरा राहगुजर तक
दुश्वारि-ए-मंजिल <ref>लक्ष्य की कठिनाई</ref> है फकत अज़्मे सफर <ref>यात्रा का संकल्प</ref> तक
दुनिया-ए-नजर अपनी है बस हद्दे नजर तक
जैसे रिते गेसू की पहुँच तेरी कमर तक
छुप-छुप के अँधरों में वो अंधेर हुआ है
तारीक <ref>अँधेरी</ref> नजर आयी है तनवीरे सहर <ref>सुबह की रोशनी</ref> तक
जहमत ही उठायी है तो इक और भी जहमत
दिल में भी चले आओ जब आये हो नजर तक
क्यों रोज़ चली जाती है तू छोड़ के तनहा
ऐ शामे हसीं <ref>सुन्दर शाम</ref> चल मुझे पहुँचा दे सहर तक
है सिर्फ मुहब्बत की नजर इसका मुदावा <ref>उपचार</ref>
मरहम तो पहुँचने से रहा जख्में जिगर तक
क्या ख्ूब समझ पायी है ऐ किब्ला-ओ-काबा
समझाते हुए आ गये मैखाने के दर तक
दीदार ’नजीर’ आके किया बुल हवसों <ref>लालचियों</ref> ने
अरबाबे <ref>नजर के स्वामी</ref> रह गये तहजीबे नजर तक