चली गयी वह, कहती थी जो / प्रांजल धर
(अपने प्यारे कवि भगवत रावत जी के लिए)
चली गयी वह कहती थी जो
लाख तपस्या का कठोर व्रत हो
अपने प्रेमी का जूठा पानी पीने से
जो टूट नहीं सकता।
काग़ज़ की पुड़िया में सिमटी
मिश्री की कुछ डलियाँ, लौंग और
ख़ास चीनी की ही कुछ मिठाइयाँ व्रत का
प्रसाद हुआ करती थीं,
प्रेम का प्रासाद हुआ करती थीं।
प्रसाद में झाँकता जीवन प्रासाद के जीवन से भिन्न था
औपचारिकताओं का व्याकरण नहीं था यहाँ बिल्कुल
और न ही खिंचा था कोई परदा स्व व पर के बीच,
न ही बोलने के पहले सोचना पड़ता देर तक।
दिल्ली जैसा शहर प्रासादों से भरा है
खाली है मानसिक भूगोल लोगों का प्रसाद से
हवाओं में दुआओं की नमी ग़ायब है दूर तक
सच कहा कि दिल्ली की है आबो हवा और!
लाख ग़लतियाँ करो, यहाँ माखने वाला नहीं कोई
चली गयी वह, कहती थी जो –
माखता वही है जो प्यार करता हो आपसे
नीक लगती हों जिसकी सभी जघन्यताएँ...
दिल्ली में तो बहुत मामूली शब्दों के अर्थों पर
होते हैं कई सेमिनार, होते कई भाषण
खिंच जातीं तलवारें ज़रा-ज़रा-सी बात पर
नकली फूलों से भरे पड़े हैं गलियारे सभी यहाँ
शहरी चकर-मकर में खो गए हैं सूत्र पारिवारिक बन्धन के
माँयें अक्सर बेख़बर हैं, बच्चे अक्सर बेफ़िक्र
सच कहा कि दिल्ली की है आबो हवा और!
चली गयी वह, कहती थी जो –
छोटे-छोटे कस्बों में ही बड़े-बड़े प्रेमी रहते हैं।
छोटे-छोटे कस्बों में मिलकर रहते सभी
अमीर-ग़रीब, हिन्दू-मुसलमान...
बारात विदा करने के लिए जुट जातीं कस्बे की सारी औरतें,
खुश हो जाते छोटे-छोटे बच्चे भी, मानो उन्हीं की शादी हो
परदेस से लौटा कोई कमाऊ पूत जाता सभी के घर
बारी-बारी, हाल-चाल लेने,
पर दिल्ली में तो हरेक होटल सजा है व्रत की
शाकाहारी हरी-भरी थालियों से
कई बार व्रत यहाँ वरदान है जिसमें किसी की
सलामती की कोई कामना नहीं, दूर तक।
दिल्ली में निर्जला व्रत की बात करना मूर्खता है,
सच कहा कि दिल्ली की है आबो हवा और!
चली गयी वह, कहती थी जो –
पाएँगे आप मुझे हर ऐसी जगह जहाँ विश्राम मिले
मन को देर तक,
चली गयी वह...।