भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चली जाती हूँ / सविता सिंह
Kavita Kosh से
चली जाती हूँ
आंधी सी उस हवा में ऐसे
जैसे जानती हूँ उसकी भीतरी अहिंसा
जानती हूँ वह आकर थमेगी मुझ में ही
भर देगी जाने कैसी-कैसी अतृप्तियों से फिर
अधीर होने पर सुला देगी
मेरे ही सपनों की बाँहों में आख़िर
चली जाती हूँ दुर्धर्ष उन घाटियों में भटकने
जहाँ कतई उम्मीद नहीं है उससे मिलने की
मेरी कल्पना ने जिसे चुना है
जाती हूँ लौटने हर बार नए सिरे से
उन्हीं अक्षरों के बीच
जिसने मिलती-जुलती हूँ
मिलती-जुलती हैं जो कितनी उन बिम्बों से फिर
जिनके अर्थ छिपे रहते हैं
उजागर होकर भी
तभी तो समा जाती हूँ निःस्वर
समय के आईने में हर रात
जहाँ संचित है वह आलिंगन
या कि बिम्ब उसका
जिस में है वह
और उसकी उत्तप्त बाँहें?