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चलु चलु हे सखी, जनकपुर नगरिया हे / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

पत्थर का मंदिर है, जिसमें चंदन के किवाड़ हैं। सोने के पलँग पर बिछी चादर पर फूल बिखरे हैं। उसी पर दुलहा-दुलहिन सोने गये। दुलहे ने दुलहिन का हाल-समाचार पूछा। दुलहिन ने कहा- ‘मैं दिन भर महीन सूत काता करती थी और रात में माँ के पास सो जाती थी।’ दुलहे ने अपना समाचार बतलाया- ‘दिन-भर मैं तीर-धनुष लेकर खेला करता था, परन्तु रात अपनी भावी पत्नी की याद में बिछावन पर कुछ ढूँढ़ते हुए बेचैनी से गुजारता था।’
सूत कातने का प्रचलन आज भी इस क्षेत्र में है। घर की स्त्रियाँ जो सूत कातती हैं, वह काफी महीन होता है।

चलु चलु हे सखी, जनकपुर नगरिया हे।
जनकपुर नगरिया हे सखी, कथी के मंदिलबा हे॥1॥
कथी के मंदिलबा हे सखी, कथी के केबरिया हे।
कथी के केबरिया हे सखी, कथी के बिछौनमा हे।
कथी के बिछौनमा हे सखी, कथी के चदरिया हे॥2॥
जनकपुर नगरिया हे सखी, पत्थल के मंदिलबा हे।
पत्थल के मंदिलबा हे सखी, चनन के केबरिया हे॥3॥
चनन के केबरिया हे सखी, सोना सेज बिछौनमा हे।
सौना सेज बिछौनमा हे सखी, फूल सेज चदरिया हे॥4॥
ताहि पैसी सूतै गेलै, रामे बर दुलहा हे।
जौरे भै<ref>साथ में; साथ होकर</ref> सूतै गेली, सीता दाय दुलहिनियाँ हे॥5॥
कहु कहु अहे सीता, अपनी कुसलबा हे।
कहु कहु अहे रामचंदर, अपनी कुसलबा हे॥6॥
दिन भर काटियै<ref>काटती है</ref> हो रामेचंदर, नान्ही<ref>छोटी</ref> मेंही<ref>महीन</ref> सुतबा<ref>सूत</ref> हे।
राती के बेरिया हो रामजी, माता सँग सोबलों हे॥7॥
सुनू सुनू आहे सीता, हमरो कुसलबा हे।
दिन भरि खेलियो<ref>खेलता हूँ</ref> हे सीता, तीर हे धनुखबा हे॥8॥
रात कै बेरिया<ref>रात के समय</ref> हे सीता, हासोंतत<ref>बटोरना; टटोलना; बेचैनी और जल्दीबाजी में हाथ से जल्दी-जल्दी बटोरना</ref> सेजिया हे।
सेजिअहिं अहे सीता, साले हे करेजबा हे॥9॥

शब्दार्थ
<references/>