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चले आओ कि याद अक्सर दिले-दीवाना करता है / राजेंद्र नाथ 'रहबर'
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चले आओ कि याद अक्सर दिले-दीवाना करता है
तुम्हारा इंतिज़ार अब भी ये बे-ताबाना करता है
किसी ने मुस्कुरा कर मुझ को देखा ही सही लेकिन
ज़माना क्यों ज़रा सी बात को अफ़साना करता है
अगर बे-लौस उल्फ़त उठ चुकी है दहर से नासेह
तो क्यों क़ुर्बान अपनी ज़िन्दगी परवाना करता है
खिरद-मंदों से भी बढ़ कर खिरद-मंदाना होती हैं
जो बातें बे-ख़ुदी में आप का दीवाना कहता है
बड़ी अनमोल शय है कर भी ले नादां क़ुबूल इस को
दिल अपना पेश रहबर अज़-रहे-नज़राना करता है।