चले आये थे समीप / अंजना वर्मा
पानी की तलाश में चोंच खोलकर घूमते
थके-हारे पक्षी की तरह
दिन का वह कुम्हलाया तीसरा पहर भी
तपते-हाँफते दिन—सा
सूना और सन्नाटा था
एकाएक न जाने कैसे खो गयी थी
दुनिया की सारी आवाजें
धूप रहते हुए भी न जाने कैसे
सारी आकृतियाँ गायब हो गई थीं
तभी कई भूले-बिसरे दर्द
वृद्ध परिजनों का रूप धर-धरकर
ऐलबम के पुराने
ब्लैक ऐंड व्हाइट चित्रों की तरह
निकल-निकलकर चले आये थे
मेरे समीप
और बैठ गये थे
मेरे मन के दालान में
उनका इस तरह बैठ जाना अपने पास
उनके अपनेपन की गंध का
इस तरह पसर जाना चारोंं ओर
अचानक बहने लगा था नीला पानी
आकाश की तरह तन जाने का दर्द
भोग रही थी मैं
वे मेरे पास रहते हुए भी इतने दूर थे
कि मैं उनके हाथ अपने हाथों में
नहीं ले सकती थी
वे न जाने क्या कह रहे थे
मैं सुन नहीं पा रही थी
यह नजदीकी क्या होती है
जब दूरी एक सृष्टि-भर की हो?
वे तो थे मेरे चारोंं ओर
पर मैं उनसे कुछ कह-सुन नहीं सकती थी
यह मेरे जीने की यंत्रणा है
और न जाने कैसे
आनंद भी यही है
कि बार-बार उन्हें देखकर
दुर्घटनाग्रस्त और लहूलुहान होकर भी
मैं उन्हें अपने सीने में बसाये रखना चाहती हूँ