भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चलो आज कोई रिश्ता बनाएँ / शशि पाधा
Kavita Kosh से
चलो आज कोई रिश्ता बनाएँ
अनजान बस्ती की धूप छाँव सेकें
किसी अजनबी को गले से लगाएँ|
दिलों से हटा दें
उलझन का पहरा
नेकी की मरहम
भरे ज़ख्म गहरा
बाँहों के घेरे की रीति चलाएँ|
चलो मान लें कि
रस्ता है मुश्किल
क्यूँ न बनें खुद
निभाने के काबिल
मंज़िल को अपना हठ तो दिखाएँ.
झुके, तो पराजित
ज़माना कहेगा
रुके तो मन का ही
बोझा बढ़ेगा
कोई आँख पोंछें, किसी को मनाएँ.
मन तो न देता
झूठी गवाही
कर्मों का लेखा
अनमिट स्याही
कथनी और करनी का अंतर मिटाएँ
चलो आज इक घरौंदा बसाएँ .
-0-