भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चलो इक बार फिर से / साहिर लुधियानवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों ।


न मैं तुम से कोई उम्मीद रखूँ दिलनवाज़ी की,

न तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लत अन्दाज़ नज़रों से ।

न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों से,

न ज़ाहिर हो तुम्हारी कशमकश का राज़ नज़रों से ॥


तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशक़दमी से,

मुझे भी लोग कहते हैं ये जलवे पराए हैं ।

मेरे हमराह भी रुसवाइयाँ हैं मेरे माज़ी की,

तुम्हारे साथ भी गुज़री हुई रातों के साए हैं ॥


तारुफ़ रोग हो जाए तो उसको भूलना बेहतर,

ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा ।

वो अफ़साना जिसे अन्जाम तक लाना न हो मुमकिन,

उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा ॥