भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चलो ऐसा करते है / प्रकाश मनु

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चलो ऐसा करते हैं
अपनी-अपनी पीठ पर से उतारकर
उम्र की गठरियां
बरसों का बोझ
फिर से हो जाते है हलके
और तरोताजा,
हवा से खींचते है भरी-पूरी सांस
और हाथ में हाथ पकड़ सामने के खुले मैदान में दौड़ लगाते हैं...
दूऽऽऽर....इतनी दूर तक अंधेरे और उजाले की हदों को छू आते हैं
कि फिर कभी किसी के हाथ न आएं,
कुछ नए ही अचंभों भरे क्षितिजों पर चले जाए...
चलो, ऐसा करता है।

चलो, ऐसा करते है....
सामने की सड़क पर से कुछ बढ़िया गोल
सुडौल कंकड़ बीनते हैं
और आज दिन भर कुछ और नहीं, बस गुट्टे खेलते हैं
नहीं, गुट्टे नहीं, पतंगें....
तुम्हें पतंग उड़ानी आती है सुनीता?
अच्छा, चलो छुड़ैया ही देना....
इतना तो सिखाया ही होगा तुम्हें तुम्हारे बचपन ने।
या फिर तुम बताओ जरा तफसील से अपने बचपन के खेल
और मैं अपने....
याद कर-कर के वही खेलत हैं

तुम्हें याद है एक होती थी पंचगुट्टी
ईट के जरा-जरा से टुकड़ों पर टुकड़े जमाकर
तुमने खेली थी कभी....
कभी गेंद मारकर गिराई थी पंचगुट्टियां ?
चलो, तनिक छोटी सी नीली एक गेंद ले आएं
जो छूट गई थी कहीं बचपन में ....
(किसी गहरे बरसाती नाले में गिरी और फिर कभी मिली नही नहीं।)
चलो, आज वही खेलते हैं।

चलो, ऐसा करते है कि
धीमे-धीमे ताप में धीमी करते बातें
टहलते हैं
और टहलते-टहलते कहीं दूर निकल जाते हैं
समय की सारी सरहदें पीछे छोड़ जाते हैं
पीछे छोड़ जाते हैं दुनिया के सारे नियम और कायदे
और बोने लोगों की बोनी दुनिया के नुकसान और फायदे
किसी और दुनिया में चलते हैं जहां भाषा इतनी थकाने वाली न हो
लोग इतना अधिक बोलते और घूरते और
इधर-उधर सूंधते और किकियाते न हों
न हो इतने चिड़चिड़ेपन का बोझ आत्मा पर-
चलो कहीं चलते हैं।

चलो, ऐसा करते है....कि घूमते-घामते
शहर सामने की जो उजड़ी हुई भीत है
चूने और ककैया ईंटों की
उस पर किसी गंवार बच्चे द्वारा उकेरी गई
बुढ़िया-बुड्ढे की शक्लों में
हम बदल जाते है....
और वहीं टिककर बरसों जमाने के
हवा,पानी, धूप और मेंह का सामना करते हैं
वहीं देखते हैं काल को कालातीत होते

और फिर एकाएक मिट्टी के एक ढूह में बदलते....
वहीं तुम मेरी ओर कोई छिपा इशारा
करके मुसकराना
मैं तुम्हें सुनाऊगा किसी पुरानी सी
नज्म का कोई टुकड़ा
कोई शोर मीर कि गालिब का... अपनी पसंद का।

समय के साथ धीरे-धीरे खिरेगी दीवार
समय के साथ धीरे-धीरे हम ढहेंगे
और मिट्टी में मिट्टी होकर समा जाएंगे....
घास में घास
पत्ती में पत्ती
आकाश में आकाश
धूप में धूप
और मेंह में मेंह होकर समा जाएंगे।

और फिर हम न होकर भी
इसी दुनिया में रहेंगे ...
इसे भीतर से सुंदर बनाएंगे।