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चलो कविता / रंजना जायसवाल
Kavita Kosh से
मेरी कविता की किताब
छपकर
बिकेगी महंगे दामों
किन हाथों में पहुंचेगी?
नहीं बिकी तो
चुक जाएगी उसकी जरूरत?
इसलिए कविता
चलो,चौराहे पर
जहां दिनभर बिकने की आस में
खड़े होते हैं
गाँव से आए नौजवान
सवारियों की तलाश में
रिक्शे वाले
ठेले लगाए खड़े होते हैं
गरीब
जिनकी झुग्गियाँ
शहर की सुंदरता के लिए
उजाड़ दी जाती हैं
चलो कविता
तुम्हारी जगह
उन्हीं लोगों के बीच है