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चलो कहीं न कहीं वास्ते ग़लत निकले / पुरुषोत्तम प्रतीक
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चलो कहीं न कहीं वास्ते ग़लत निकले
ग़ज़ब हुआ कि सभी रास्ते ग़लत निकले
हमें तलाश रही, चिट्ठियाँ कहाँ मिलतीं
पता सही न रह, डाकिए ग़लत निकले
बड़ा अजीब रहा इश्क़ भी सियासत का
रक़ीब ठीक रहे, साथ के ग़लत निकले
बहुत उदास लगा आदमी, रहा होगा
सभी हँसोड़ मगर बात के ग़लत निकले
सही ग़ज़ल न हुई ज़िन्दगी की अपनी
कभी रदीफ़ कभी क़ाफ़िए ग़लत निकले