चलो कि अब हम गुनहगार ही सही... / प्रतिभा कटियार
सियासत के मायने हम क्या जानें
हम तो बस गेहूँ की बालियों
के पकने की ख़ुशबू को ही जानते हैं
दुनिया की सबसे प्यारी ख़ुशबू
के रूप में,
क्या पता कैसा होता है जंतर-मंतर
और कैसा होता है जनतंतर
देश दुनिया की सरहदों से
हमारा कोई वास्ता कैसे होता भला
हम तो घर की दहलीज़ों से ही
लिपटे हैं न जाने कब से
बस कि हमने पलकों को झुकाना
जरा कम किया
आँखों को सीधा किया,
शरमा के सिमट जाने की बजाए
डटकर खड़े होना सीखा
आँचल को सर से उतार कमर में कसा
कि चलने में सुविधा हो ज़रा
कहीं पाँवों की ज़ंजीर न बन जाए पायल
सो उससे पीछा छुड़ाया,
न कोई तहरीर थी हमारे पास
न तकरीर कोई
हमने तो ना कहना
सीखा ही नहीं था
बस कि हर बात पे हाँ कहने
से जरा उज़्र हो आया था
इसे भी गुनाह क़रार दिया
तुम्हारे कानून ने
चलो कि अब हम गुनहगार ही सही...