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चलो देखें... / दिनेश सिंह
Kavita Kosh से
चलो देखें,
खिड़कियों से
झाँकती है धूप
उठ जाएँ ।
सुबह की ताज़ी हवा में
हम नदी के साथ
थोड़ा घूम-फिर आएँ !
चलो, देखें,
रात-भर में ओस ने
किस तरह से
आत्म मोती-सा रचा होगा !
फिर ज़रा-सी आहटों में
बिखर जाने पर,
दूब की उन फुनगियों पर
क्या बचा होगा ?
चलो
चलकर रास्ते में पड़े
अन्धे कूप में पत्थर गिराएँ,
रोशनी न सही,
तो आवाज़ ही पैदा करें
कुछ तो जगाएँ !
एक जंगल
अन्धेरे का -- रोशनी का
हर सुबह के वास्ते जंगल ।
कल जहाँ पर जल भरा था
अन्धेरों में
धूप आने पर वहीं दलदल !
चलो,
जंगल में कि दलदल में,
भटकती चीख़ को टेरें, बुलाएँ,
पाँव के नीचे,
खिसकती रेत को छेड़ें,
वहीं पगचिह्न अपने छोड़ आएँ ।