प्राची ने
लाल कमल बाँधे आँचल में
चलो गायें।
अपनी-अपनी
गल्तियाँ चुने,
ज्यों सैकड़ों बरस पहले
आश्रम के छात्र कहीं-
उपवन में
सूखी लकड़ियाँ बिनें
और फिर
उन्हें हँस-हँस-
यज्ञाग्नि मैं जलायें।
नये-नये सन्दर्भों को
दृष्टि में उतारें, प्राण में समोलें,
नाखुश सम्बन्धों पर कुछ पलक भिगोलें,
पहरों पर निरखें, शब्द जहाँ से उतरें
और फिर करें पीछा-
अर्थ जहाँ तक धायें।
कुछ भी मत बाँधें-
रसग्राही पंख सधी, मुक्त कल्पनाओं के पावों में,
मधुमाखी की तरह चतुर्दिक जाने दें: गंध लदे फूलों के गाँवों में,
लाने दें:
गीतों के छत्तों तक, जितना रस ला पायें।