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चलो सजनी / कुमार रवींद्र

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चलो, सजनी
इस अधूरे आखिरी दिन को
          यहीं पर हम सिराएँ
 
थक चुके हम
धूप भी है थकी-हारी
हुई बोझिल
साँस भी तो है हमारी
 
पूर्व इसके
घुप अँधेरे हों नदी पर
         घाट पर दीये जलाएँ
 
सूर्य-रथ भी
रक्त में, देखो, नहाया
आयने में अक्स भी
लगता पराया
 
हो रहीं अंधी
इधर,देखो, हमारी
          देह की आदिम गुफाएँ
 
राख झरती
फूल की पगडंडियों पर
यह समय है कठिन -
सूखे नेह-पोखर
 
आयेगा जो कल
उसे दें, सुनो, सजनी
         साँझ-बिरिया की दुआएँ