भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चलो सिपाही / श्रीप्रसाद
Kavita Kosh से
चलो सिपाही, वीर चलो तुम
आगे चलो सिपाही
मिलकर चलो, मिलेगी मंजिल
तुमको तब मनचाही
कदम चले जाते हैं बढ़ते
चढ़ते पर्वतमाला
मिटता जाता है अँधियारा
फैला काला-काला
बिना रुके चलने वाले ही
होते सच्चे राही
खबर भेज किरणों से सूरज
चलकर तुम्हें बुलाता
चलता देख तुम्हें चंदा
ऊपर आकर मुसकाता
नाम तुम्हारा लिखा करेंगी
नदियाँ बनकर स्याही
तुम चलते हो, धरती खुश है
राहें मुसकाती हैं
पेड़-पेड़ पर चिड़ियाँ गाने
स्वागत के गाती हैं
सच है, मंजिल किसे मिली है
अब तक चले बिना ही
चलो सिपाही, वीर चलो तुम
आगे चलो सिपाही।