चश्मे की डंडियाँ / मुकेश कुमार सिन्हा
तुम और मैं
चश्मे की दो डंडियाँ
निश्चित दूरी पर
खड़े! थोड़े आगे से झुके भी!!
जैसे स्पाइनल कोर्ड में हो कोई खिंचाव
कभी कभी तो झुकाव अत्यधिक
यानी एक दूसरे को हलके से छूते हुए
सो जाते हैं पसर कर
यानी उम्रदराज हो चले हम दोनों
है न सही!!
चश्मे के लेंस हैं बाइफोकल!!
कनकेव व कन्वेक्स दोनों का तालमेल
यानि लेंस के थोड़े नीचे से देखो तो होते हैं हम करीब
और फिर ऊपर से थोडा दूर
है न एक दम सच...
सच्ची में बोलो तो
तुम दूर हो या हो पास ?
ये भी तो सच
एक ही जिंदगी जैसी नाक पर
दोनों टिके हैं
बैलेंस बना कर...
बहुत हुआ चश्मा वश्मा!!
जिंदगी इत्ती भी बड़ी नहीं
जल्दी ही ताबूत से चश्मे के डब्बे में
बंद हो जायेंगे दोनों...!!
पैक्ड!! अगले जन्म
इन दोनों डंडियों के बीच कोई दूरी न रहे
बस इतना ध्यान रखना!!
सुन रहे हो न!!
तुम बायीं डंडी मैं दायीं अब लड़ो मत
तुम ही दायीं