भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चहुुँदिश में फैले उजियारे / शीला पाण्डेय
Kavita Kosh से
गिरकर उछलीं छम-छम बूँदें
चम-चम चमके अनगिन सारे
आसमान से डोर पकड़कर
धरती उतरे अम्बर-तारे।
जटा खोल शिव धरती उतरे
कारे, खारे दोष धुलाने
नदिया, पेड़, अवनि संग बच्चे
लेकर पर्वत चला घुमाने
थिरक-थिरक कर बूँदें फिसलीं
कंचन काया पर मिट प्यारे।
गोद थामते पत्ते लचके
पंखुड़ियाँ विहँसीं मदमाती
हवा रसीली चढ़ी नशीली
गोरी बहकी प्रेम थमाती
प्रियतम टूट-टूट कर बरसे
छिन्न-भिन्न कर बन्धन सारे।
बिजली फुर्ती बाँट रही है
बदली नजर डिठौना देती
बूँदें छुम-छुम नृत्य सिखातीं
घर-घर हवा पठौना देती
जीवन झूले झूम-झूम कर
चहुँदिश में फैले उजियारे